शुक्रवार, 28 मार्च 2014

बैरागी मन

                                                                                                    Image by Mike Baird, Courtesy flickr.com, 


कुछ गलियाँ वो होती हैं जो पीछे छूट जाएँ तो भी कभी नहीं भूलतीं। उन चंद गलियों में एक गली तुम्हारी भी है, जो मुझे जर्रे-जर्रे से याद है, आज भी। गुजरना होता है जब भी कहीं समीप कि तेरी गली से, मुझे पुकार वो अब भी सुनाई दे जाती है। पुकार, जो मैं कभी अनसुना नहीं कर सकता था। फिर आज क्यों अनसुना कर देता हूँ। औपचारिकता सहजता पर नकेल कस ही देती है। सारी क़समें,सारे वादे बस धरे के धरे रह जाते है। निस्ठुरता सज्जनता को निगल लेती है। काश कि कोई जादुई कलम वाकई में होती, और काश कि वो मेरे हाथों में होती, तो क्या मैं तब भी यूँ ही सब कुछ होने देता।  नहीं, तब मैं जरूर तुम्हारे मन कि उलझनों को एक सरलता देने का प्रयास करता।तुम्हारे मन के ताम्रपत्र पर कुछ ऐसे शब्द गढ़ता जिससे किसीको कोई आघात न होता। किसी का हृदय उन शब्दों कि कटुता से विचलित न होता। कुंठित न होता। परन्तु, उस जादुई कलम के अभाव से मैं आज बेबस हूँ। लाचार हूँ। यही लाचारी है जो इन कदमों को मोड़ देती है, नहीं बढ़नें देती तेरी गली कि ओर। बेबस हूँ, बस यही कहूंगा। 


कभी नहीं सोचा-जाना था कि शब्द कि कटुता इतनी विषैली भी हो सकती है, कि अंतर्मन को भी मूर्छित कर सकती है। कुछ लोग होते है जिनको दाल में हींग का होना न होना एक जैसा, तुम भी उनमे से एक होगे या हो जाओगे ये न सोचा था कभी। खैर, मुद्दतों बाद देखना हुआ था तुम्हें, सारे रोएँ थर्रा गए थे, रक्त नब्जों में दौड़ना भूल गए, जबान शब्द और कंठ स्पंदन करना भूल गए। ऐसा क्यों हुआ नहीं समझ सका। कभी समझ भी नहीं सकूंगा। तुम्हारी क्या मनोस्थिति रही होगी ये भी तो नहीं जान पाउँगा। अब तो कबीर कि यही बात जहन में आती है कि "कबीरा खड़ा बाज़ार मांगे सब कि खैर, न कहु से दोस्ती, न कहु से बैर।" तुम तो अपने ही थे, कहीं ना कहीं आज भी तो अपने ही हो। कम से कम मैं तो यही मानते आया हूँ, मानता रहूँगा। प्यार-विश्वास, रिश्ते-नाते, दोस्ती-यारी इन सब से मन अभी बैरागी नहीं हुआ है। वैसे देखा जाये तो बैराग भी तो एक बंधन ही है, बंधन में न बंधने का बंधन। तो लगता है कि ऎसा ही कोई बैराग तुमने भी पाल लिया है मुझसे। तभी तो इतनी निष्ठुरता आ गई है तुममें। 

परायों से अपनापन हासिल होने कि तीव्र गुंजाईश होती है, कई सारे जो आज अपने हैं, बेहद करीबी हैं, कभी पराये ही हुआ करते थे। किन्तु एक दफ़ा कोई अपना, बेहद अपना पराया बन जाये तो उससे फिर कभी अपनापन मिलने कि गुंजाईश नहीं बचती। एक अदना-सा बीज विशाल वृक्ष का रूप ले सकता है, और वही विशाल वृक्ष कई-कई बीज उत्पन्न कर सकते हैं। प्रकृति कि यही खूबी है। तो ये खूबी इंसानी ज़ज्बातों में क्यों नहीं? क्यों इंसानी रिश्ते प्रकृति के नियमों से परे हैं? पानी जो नदी को छोड़ समंदर से जा मिलता है, वो नदी से मिलने दोबार भी तो आता ही है। नदी उसे ठुकराती भी तो नहीं, अपने आलिंगन में फिर से भर ही लेती है। नदी जानती है कि पानी के बिना उसका अस्तित्व नहीं। पानी भी समझता है कि उसके बिना नदी में बहाव नहीं। कल-कल कि मधुर संवाद नहीं। इसीलिए चला आता है एक रस होने। जिवंत होने। पानी नदी का पूरक है। रिश्ते भी तो पूरक होते हैं एक-दूसरे के। एकाकी के जीवन में भी भला क्या रिश्ते बन सकते हैं, निभाए जा सकते हैं? या तो अहसास ख़त्म हो जाता है, या फिर जरूरत। वरना यूँ ही नहीं कोई छोड़ जाता किसी को। 

क्या एक क्षण बरसों के, करोड़ों क्षणों से बनते आये रिश्ते को, प्रेम को, संयम  को, विश्वास को, जड़ों से उखाड़ कर बेपरवाही से तहस-नहस करने कि स्फूर्ति रखता है? क्या उस एक पल में इतनी अपार शक्ति होती भी है? यक़ीनन होती होगी। नहीं होती तो क्या मेरे अस्तित्व को यूँ तहस-नहस होने देते तुम? कभी नहीं। परन्तु तुमने ऐसा सहज ही होने दिया। इसका मुझे मलाल होता था, पर अब नहीं। अब मैंने उन बिखरे टुकड़ों को समेटना शुरू कर दिया है। दरारों को भरना आसान नहीं होता, मरम्म्त कि छाप झलक ही जाती है। दरारें भर तो दी जाती हैं, पर चटखने कि आशंका बनी रहती है। किन्तु, ढहे हुए दीवार को एक नए सिरे से उठाना आसान होता है। उसमे अदम्य साहस होता है, अटूट विश्वास भी। कच्चा सूत खिंचाव सहन नहीं कर सकता, झट से टूट जाता है। वही सूत जब धागों में पिरोया जाये तो कुछ हद तक खिंचाव झेल जाता है, टूट भी जाता है। वही धागा जब तानों-बानों में कस दिया जाता है तो उनमें कमाल कि सहनशक्ति समा जाती है। अब उस एक अदने से सूत को चटखाना मुमकीन नहीं। उस धागे को तोड़ना आसान नहीं। अब उसमे अपार शक्ति है। फिर वही शक्ति इंसानी रिश्तों में क्यों नहीं? क्यों?

गुरुवार, 27 मार्च 2014

प्रारब्ध के पुतले

लहरों के बहाव में तो कूड़े-कर्कट बहा करते हैं, हम तो फिर भी इंसान हैं, विवेकी होते हैं इंसान। क्यूँ... होते हैं कि नहीं? तो क्यूँ नहीं करते हम अपने विवेक-बुद्धि का इस्तेमाल? क्यूँ हम बहाव में बहे चले जा रहे हैं? सदियों से ऐसा ही होता आ रहा है। वो कहते हैं न की "जैसी चले बयार पठी तब तैसी कीजै" तो क्या हम इतने लाचार अब भी हैं? इस युग में भी... ? की बयार के इशारों का इन्तजार करें...? बयार संग बहे चले जाएँ, मुड़ कर भी न देखें की कहाँ से आ रहे हैं... कहाँ को जा रहे हैं? अगल-बगल भी न देखें कि किनके साथ बहे जा रहे हैं? 
बस किसी ने सचेत कर दिया की लहरों से मत टकराओ, आगे नहीं बढ़ पाओगे, चूर-चूर हो जाओगे, तो बस लो भईया बैठ जाते हैं किनारे पर। प्रारब्ध कहीं ले जाये तो ले जाये, हम लहरों से टकराने की हिमाकत क्यूँ कर करें भला, हम कोई हनुमान-जामवन्त तो हैं नहीं की फिर से कोई सेतु बना लेंगे वो भी महज शब्दों के बल पर...! 
नहीं भाई हम तो न हिलेंगे, यूँ ही बैठे रहेंगे. यही बठे-बैठे करवट लेते रहेंगे. अपनी पीठ की दिशा बदलते रहेंगे, भले दशा बदले न बदले. क्या फ़र्क पड़ता है? क्या फ़र्क पड़ जायेगा। 
जहाँ सभी बहे जा रहे हैं तो भला हम भी क्यूँ न बहते चले जाएँ? बहते रहने में शक्ति क्षीण नहीं होती, टकराने में होती है। और वैसे भी टकराव कोई अच्छी बात तो होती नहीं। सब के साथ बहे चलने में ही भलाई होती है। बस एक-दूसरे का हाथ थामे बहे चले जाएँ। पर यदि सभी मजबूती से हाथ थाम लें तो टकराया भी तो जा सकता है। किसी किस्से के सार में पढ़ा था कि एकता में बल होता है, अपार शक्ति। परन्तु, टकराव कि अवस्था में कष्ट भी तो होगा। यूँ भी हो सकता है कि कई हाथ छूट जाएँ, या टूट ही जाएँ। हो न हो वो हाथ हमारा ही हो....! हो क्या सकता है, होता ही है। इतिहास भरा पड़ा है। फिर हम भी क्यों कूदें भला ऐसे इतिहास के दलदल में। हम तो बैठे ही अच्छे-भले हैं। 

बैठना ही हमारा प्रारब्ध है। या यूँ भी कह सकते हैं के हमने बैठे रहने को ही अपना प्रारब्ध बना लिया है।