गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

तितली-सा मासूम बचपन (Don't Grow Up, It's a Trap)

                                                                                                   चित्र साभार : विकिपीडिआ

 तितली का वजूद उसकी मासूमियत में है, सुंदरता में है, स्वच्छन्दता में है। फिर ये कैसी महत्त्वकांक्षा है? ये कैसा डर है? जिंदगी से बढकर महत्त्वकांक्षा? जीवन का मोह नहीं, समाज का, प्रतिष्ठा का डर। किसके लिए ये दिखावा? कच्चे घड़े में पानी भरने कि क्या अनावश्यक जल्दबाजी? तितली से शहद बनवाने कि ये जिद क्यों? बछड़ों को जुए में जोड़ने कि जल्दबाजी क्यों? कहते हैं कि सब्र मीठा फल देती है तो फिर ये छटपटाहट क्यों? नहीं, नहीं, सख्ती से नहीं नरमी से काम लो भई!

बच्चों का मन तितली कि तरह होता है। बच्चे जब तक अपनी धुन में रमें रहते हैं, और कोई टोका-टाकी नहीं करता, वो मस्त हो रमते रहते हैं। तितली कि ही तरह कभी इस फूल, कभी उस। कभी इस बगिया, कभी उस। खूशबू और सौंदर्य कि संगत में रहते-रहते तितली भी कितनी ख़ूबसूरत हो जाती है। फूलों सी ही नाजुक। कोमल। चंचल। मोहक। पर आह! फूलों ही कि तरह क्षण-भंगुर भी। जरा सा आघात, और वजूद नष्ट। तितली का वजूद स्वच्छंद हो रमते रहने में है। फूलों संग अठखेलियाँ करने में है। तितली को आलिंगन नहीं पसंद। आलिंगन में बंधन का, स्वामित्व का बोध होता है। तितली को बंधन नहीं पसंद। उसे स्वछन्द हो फूलों को चूमना खूब भाता है। चुम्बन में बंधन नहीं। उसे हवा के संग निर्भीक हो झूलना भाता है।उसे जंगलों-पहाड़ों में विचारना भी अच्छा लगता है। नदी कि कल-कल संगीत में झूमना भी अच्छा लगता है। पत्थरों, चट्टानों पर बैठना भी अच्छा लगता है।  तितली को पकड़ने की, कैद करने की चेष्ठा मूर्खता है। घोर मूर्खता। तितली को बागों में समेट कर नहीं रखा जा सकता। 

एक किस्से में पढ़ा था की किसी समय कोई किट कृमिकोष से निकलकर एक तितली के रूप में परिवर्तित होने को लालायित था। किसी व्यक्ति ने कृमिकोष से बहार निकलते तितली को संघर्ष करते हुए देखा। उससे तितली का वो संघर्ष देखा नहीं जा रहा था, तितली को हो रहा यह कष्ट उससे बर्दाश्त नहीं हो रहा था, उसने सहायता करने की ठानी और एक पतली छड़ी की मदद से तितली की कृमिकोष से निकालने में सहायता की। तितली जल्द ही कृमिकोष से बहार आ गयी। एक नए संसार में। उस व्यक्ति ने अब एक राहत की सांस ली।  वह व्यक्ति बहुत ही प्रसन्न हुआ। कुछ क्षण उत्सुकता-वश वह तितली को निहारता रहा। उसे लगा की तितली अब उड़ी की तब उड़ी। वह देखता रहा। कुछ समय बीत जाने के बाद भी तितली रेंगती ही जा रही थी। उसने ध्यान दिया तो उसने देखा की तितली के पंख ठीक से खुल नहीं पाए हैं। सहसा ही उसे यह अहसास हुआ की कहीं उस छड़ी से तो कोई आघात नहीं लग गया। अरे! यह क्या हो गया मुझसे। अब उसे यह अहसास हो चुका की कृमिकोष से बहार निकलने की स्वाभाविक प्रक्रिया में नाहक ही हस्तक्षेप किया। उसने एक मासूम तितली को असहाय बना दिया। ऐसी सहायता किस काम की जिसने इस सुन्दर, मोहक, चंचल, अबोध तितली को जीवन भर के लिए लाचार बना दिया? 

अब वह युग नहीं रहा की लोहार का बच्चा लोहार, सोनार का बच्चा सोनार। अब शिक्षा परम्परागत घरेलू व्यवसाय सिखना भर नहीं रहा। शिक्षा अब विद्यालयों में अपना घर बना चुकी है। समाज में यह बदलाव आधुनिकता बदलाव की देन है। शिक्षा परम्परागत दक्षता या योग्यता के आधारबिंदु पर नहीं, बल्कि बच्चे की व्यक्तिगत रूचि, योग्यता एवं विवेक के आधार पर होना चाहिए। शिक्षा सहज होना चाहिए।  सरल होना चाहिए। शास्‍त्रों में उल्लेख है कि 'अति वर्जस्‍य सर्वत्र', आज की शिक्षा प्रणाली पर यह उक्ति पूरी तरह सटीक बैठता है। शिक्षा प्रतिस्पर्धा बना दी गई है। घुड़दौड़। अभिभावक, शिक्षक एवं समाज - घुड़सवार। बच्चे - घोड़े। प्राचीन-काल में विदेशों से घोड़े आयत किये जाते थे। अब विद्यार्थी निर्यात किये जाते हैं। तब तक्षशीला हुआ करता था अब हारवर्ड, कैंब्रिज। तब शिक्षा निर्यात की जाती थी, अब आयात। अभूतपूर्व, अविश्वसनीय, प्रचण्ड - दबाव। दबाव प्रतिस्पर्धा का, दबाव मान-सम्मान का, दबाव अव्वल रहने का और दबाव उम्मीद का। इन सभी दबाव के बीच बच्चे की मन:स्थिति, बच्चे की इच्छा, बच्चे का रूझान दबा ही रह जाता है। जडवत। जैसे अंगद के पैरों तले आ गया हो। 

तारे ज़मीन पर, थ्री इडियट्स तथा उड़ान जैसी फिल्में कोर-कल्पित नहीं वरन समाज के ही दर्पण हैं। और दर्पण जहाँ सुन्दरता,कोमलता दिखाता है, वहीँ घिनौना सच (चेहरा) भी। कितनी भी आँखें बंद कर लें, परदे लगा लें। मानें ना मानें। एक हद के बाद बच्चे दबाव झेल नहीं पाते। टूटने लगते हैं। बिखरने लगते हैं। बिलखने लगते हैं। लेकिन उनका बिलखना नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। गीता पाठ पढ़ाया जाता है। कसमें दिलाई जाती हैं। दुहाई दी जाती है। इन सब हथकण्डों से काम न चला तो चाबुक तैयार! कच्चा बाँध पानी की धार आखिर कब तक संभाल सकता है। टूट ही जाता है। मुर्छित। अस्तित्व विहीन। फिर पानी ही पानी। हाहाकार। मातम। पछतावा। दोषारोपण। अधूरापन। शून्यता। कोई शिक्षा नहीं। फिर वही जीवन। फिर वही मरण। 

इस शोषण से उत्थान हेतु कौन मसीहा आएगा? क्या कहा? यह शोषण नहीं है? यही जरुरी है? यही उत्थान है? यही परम्परा है? बहुत खूब। जो संसार के सुन्दर, मासूम भविष्य को सूली पे चढ़ा दे। वाह क्या खूब परम्परा है ये भी! वाह क्या बढियां उत्थान है ये! बहुत खूब! Bravo!!!

                                                                                                            चित्र साभार : flickr

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