गुरुवार, 27 मार्च 2014

प्रारब्ध के पुतले

लहरों के बहाव में तो कूड़े-कर्कट बहा करते हैं, हम तो फिर भी इंसान हैं, विवेकी होते हैं इंसान। क्यूँ... होते हैं कि नहीं? तो क्यूँ नहीं करते हम अपने विवेक-बुद्धि का इस्तेमाल? क्यूँ हम बहाव में बहे चले जा रहे हैं? सदियों से ऐसा ही होता आ रहा है। वो कहते हैं न की "जैसी चले बयार पठी तब तैसी कीजै" तो क्या हम इतने लाचार अब भी हैं? इस युग में भी... ? की बयार के इशारों का इन्तजार करें...? बयार संग बहे चले जाएँ, मुड़ कर भी न देखें की कहाँ से आ रहे हैं... कहाँ को जा रहे हैं? अगल-बगल भी न देखें कि किनके साथ बहे जा रहे हैं? 
बस किसी ने सचेत कर दिया की लहरों से मत टकराओ, आगे नहीं बढ़ पाओगे, चूर-चूर हो जाओगे, तो बस लो भईया बैठ जाते हैं किनारे पर। प्रारब्ध कहीं ले जाये तो ले जाये, हम लहरों से टकराने की हिमाकत क्यूँ कर करें भला, हम कोई हनुमान-जामवन्त तो हैं नहीं की फिर से कोई सेतु बना लेंगे वो भी महज शब्दों के बल पर...! 
नहीं भाई हम तो न हिलेंगे, यूँ ही बैठे रहेंगे. यही बठे-बैठे करवट लेते रहेंगे. अपनी पीठ की दिशा बदलते रहेंगे, भले दशा बदले न बदले. क्या फ़र्क पड़ता है? क्या फ़र्क पड़ जायेगा। 
जहाँ सभी बहे जा रहे हैं तो भला हम भी क्यूँ न बहते चले जाएँ? बहते रहने में शक्ति क्षीण नहीं होती, टकराने में होती है। और वैसे भी टकराव कोई अच्छी बात तो होती नहीं। सब के साथ बहे चलने में ही भलाई होती है। बस एक-दूसरे का हाथ थामे बहे चले जाएँ। पर यदि सभी मजबूती से हाथ थाम लें तो टकराया भी तो जा सकता है। किसी किस्से के सार में पढ़ा था कि एकता में बल होता है, अपार शक्ति। परन्तु, टकराव कि अवस्था में कष्ट भी तो होगा। यूँ भी हो सकता है कि कई हाथ छूट जाएँ, या टूट ही जाएँ। हो न हो वो हाथ हमारा ही हो....! हो क्या सकता है, होता ही है। इतिहास भरा पड़ा है। फिर हम भी क्यों कूदें भला ऐसे इतिहास के दलदल में। हम तो बैठे ही अच्छे-भले हैं। 

बैठना ही हमारा प्रारब्ध है। या यूँ भी कह सकते हैं के हमने बैठे रहने को ही अपना प्रारब्ध बना लिया है। 

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